बॉलीवुड का बाबा साहब से पक्षपात
वर्षों तक बॉलीवुड के जातिवादी फ़िल्मकार, बाबा साहब के साथ अछूत की तरह व्यवहार करते रहे। फिल्मों के मुख्य दृश्यों को तो छोड़िये, लम्बे समय तक उन्हें दृश्यों की पृष्ठभूमि तक में भी जगह नहीं दी गयी। मिसाल के तौर पर, आप 1982 में आयी हॉलीवुड फ़िल्म गांधी को ही ले लीजिये। साढ़े तीन घंटे की इस फ़िल्म में बाबा साहब का किरदार तो छोड़िये, इनका कहीं जिक्र तक नहीं किया गया जो की बेहद ताज्जुब की बात है। भारत के इतिहास में बाबा साहब की हैसियत देखें तो संविधान निर्माता, पहले कानून व न्याय मंत्री और दबे कुचले लोगों व महिलाओं के अधिकारों के सबसे बड़े हिमायती रहे। बावजूद इसके उन्हें और उनके योगदान को फ़िल्मों से दूर ही रखा गया।
आज़ादी के 40 वर्ष बाद तक संसद के मुख्य हॉल में उनकी तस्वीर तक नहीं थी, इसके बावजूद कि बाबा साहब संविधान के निर्माता थे। स्कूल-कॉलेजों की पाठ्य-पुस्तकों में भी उनका व उनके द्वारा देशहित में दिए गए योगदान का मुश्किल से ही कहीं कोई उल्लेख मिलता था।
भारत के शासक वर्ग की उच्च जातिओं ने बाबा साहब के योगदान पर हमेशा से आँखें मूंदे रखी थी। यही वजह थी जिससे इतने लम्बे समय तक बाबा साहब को सवर्ण फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों से दूर रखा। इन निर्माताओं की फ़िल्मों की पृष्ठ्भूमि में उच्च जाति के राजनेताओं जैसे महात्मा गाँधी, पंडित नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, सुभास चंद्र बोस यहां तक कि स्वामी विवेकानद की तस्वीरें ही प्रमुखता से दिखायी जाती थीं।
हिंदी सिनेमा में बाबा साहब की मौजूदगी तो न के बराबर थी ही, यहां तक कि अदालतों, पुलिस थानों व सरकारी दफ्तरों में भी उनको कोई स्थान नहीं दिया गया था।
वर्ष 2000 में निर्देशक जब्बार पटेल की अंग्रेजी-हिंदी फ़िल्म डॉ. बाबा साहब आम्बेडकर आयी जिसमें बाबा साहब की जीवन, उनकी शिक्षा व उनके राजनीतिक सफ़र का सजीव एवं बेहद मार्मिक चित्रण हुआ है। इस फ़िल्म की कामयाबी ने पूरी फ़िल्म इंडस्ट्री का ध्यान आकर्षित किया था। इस फ़िल्म के बाद से फिल्मकारों ने न केवल बाबा साहब को फ़िल्म की पृष्ठभूमि में जगह दी बल्कि उन्हें मुख्य किरदारों में भी रखा।
वो फ़िल्में जहां बाबा साहब दिखे
1. सिंहासन (1979)
2. उंबर्था (1982)
3. आख़िर क्यों (1985)
4. स्पेशल फ़ीचर ऑन डॉ. बी आर अंबेडकर (1992)
5. मुक्ता (1994)
6. अट्टाकत्थी (2012)
7. कबाली (2016)
8. न्यूटन (2017)
9. जॉली एल एल बी 2 (2017)
10. मुक्काबाज़ (2017)
11. काला (2018)
12. सेक्रेड गेम्स (2018)
13. आर्टिकल 15 (2019)
14. रात अकेली है (2020)
ज़रा सोचिए, बाबा साहब की सिर्फ एक तस्वीर को पृष्ठभूमि में लगाने में इतना समय लग गया तो कल्पना कीजिये कि उनके विचारों को जनमानस तक पहुँचने में अभी और कितना समय लगेगा। उनकी तस्वीर को अपनी दीवारों पर जगह देने के लिए हमको, आपको व फ़िल्मकारों को प्रगतिशील विचारों का होना पड़ेगा। फिर हम निश्चित रूप से बाबा साहब के द्वारा किए गए कार्यों, उनके आदर्शों और उनके त्याग को फ़िल्म के माध्यम से देख समझ पाएंगे।
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Desh k sachche mahan neta ki upeksha ki gayi bahut afshos ki baat hai
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही कहा आपने।
हटाएंBoycott bollywood....
जवाब देंहटाएंAgree
हटाएंRight
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
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