माँ का पल्लू याद है या वो भी भूल गए

माँ के पल्लू की अहमियत ना भूलें

माँ के पल्लू की अहमियत ना भूलें

माँ के पल्लू की अहमियत भला आज के बच्चे क्या जानें। बच्चे जानेंगे भी कैसे, आज की माताएं पश्चिमी परिधानों की चकाचौंध में वो पल्लू रखने का रिवाज़ जो भूलती जा रहीं हैं। पल्लू रखना कभी उनकी गरिमा का विषय हुआ करता था। किन्तु आज ये रिवाज़ विलुप्त होता नज़र आ रहा है। कारण स्पष्ट है : पश्चिमी सभ्यता का हावी हो जाना।

ज़रा याद कीजिएगा माँ की उस छवि को जब वो चूल्हे से किसी बर्तन को उठाने के लिए इसी पल्लू का इस्तेमाल करती थी। आज उसकी जगह आधुनिक उपकरणों ने ले ली है।

अपने बच्चों के बहते आँसू ना जाने कितनी बार इसी पल्लू से पोछे होंगे। यहाँ तक की उनके गंदे नाक-कान, उनका पसीना तक पोछती थी माँ इसी पल्लू से। वर्किंग वुमन का टैग लग जाने के बाद से अब ये सब करने के लिए उनके पास वक्त नही रहा। उनके बच्चों को आज MAID पालने लगी हैं।

कभी घर के काम करते हुए अपने गीले हाथों को पोछने में तो कभी खाना खाने के बाद मुँह साफ़ करने के लिए इसी पल्लू को तौलिए की तरह इस्तेमाल कर लेती थी। आज एप्रन पहन कर खुद को मॉडर्न कहलाना ज्यादा पसंद कर रही हैं।

याद कीजिएगा जब आँखों में जलन होने पर माँ इसी पल्लू को गोल करके उसमें फूंक के आँखों की सिकाई कर दिया करती थी और आँखों को तुरंत राहत मिल जाती थी। आज तुरंत Eye Specialist के पास भेज देती हैं।

माँ की गोद में जो नींद आती है उस परम आनंद को शब्दों में बयाँ नहीं किया जा सकता है। किसी बच्चे के लिए उसकी माँ की गोद मखमली गद्दे की तरह और पल्लू किसी चादर से कम नहीं होता है। आज बच्चों को सोने के लिए बचपन से ही से सेपरेट रूम की व्यवस्था दी जा रही है।

किसी अन्जान के घर आ जाने पर कैसे एक बच्चा माँ के पीछे खुद को छिपाने की मासूमियत भरी कोशिश करते हुए इसी पल्लू से झांक के देखता है। आज बच्चे आँख में आँख डालके पहले खुद ही परिचय ले लेते हैं फिर जाकर घर के बड़ों को इन्फॉर्म करते हैं या इन्फॉर्म करना भी ज़रूरी नहीं समझते।

माँ अक्सर जब बच्चों को अपने साथ बाहर कहीं लेके जाया करती थी तो बच्चे अपने नन्हे-नन्हे हाथों से इसी पल्लू को पकड़े-पकड़े पीछे-पीछे चले चलते थे मानो माँ का ये पल्लू ही उनका मार्गदर्शक हो। जब तक उनके हाथों में माँ का पल्लू रहता था तब तक मानों सारी कायनात को ही उन्होंने अपनी मुट्ठी में कैद कर लिया हो। अब उन्हीं हाथों में माँ का पल्लू नहीं मोबाइल ही दिखता है।

सर्द मौसम में माँ इसी पल्लू से अपने बच्चे को ठण्ड से बचाने कि कोशिश में उन्हें चारों तरफ़ से लपेट लिया करती थी और बारिश होने पर इसी पल्लू से उन्हें ढक भी लेती थी।

बाग़-बगीचों से माँ इसी पल्लू में कभी जामुन तो कभी खुशबूदार फूलों को चुन कर ले आया करती थी। अब कहाँ वो हरे-भरे बाग़-बगीचे रहे।

घर की साफ़-सफाई करते समय जब कभी कोई पुरानी यादगार चीज़ मिल जाती थी तो उसे साफ़ करने के लिए माँ का हाथ सबसे पहले उसी पल्लू पर ही जाता था, उसी पल्लू से ही साफ़ करने लग जाती थी।

एक समय था जब माँ इसी पल्लू में किसी का दिया दान, अन्न और प्रसाद पाकर ख़ुद को सौभाग्यशाली समझा करती थी। किन्तु आज ये परम्परा भी समाप्त होती जा रही है। इस दान-पुण्य के बदले अब लोग महंगे-महंगे तोहफे पाने की इच्छा रखने लगे हैं।

माँ के पल्लू से बंधे वो चंद सिक्के कौन भूल सकता है। किसी चलती-फिरती बैंक या खज़ाने से कम नहीं थे। तब की ज़रूरतें उन्हीं सिक्कों से तुरंत पूरी हो जाया करती थीं। आज ज़रूरतें इतनी ज़्यादा हो गयी हैं कि अपने ही पैसों को लेने के लिए लम्बी-लम्बी लाइनों में घंटों खड़ा रहना पड़ता है।

विज्ञान चाहे जितनी भी तरक्की कर ले, हम कितने ही मॉडर्न क्यों ना हो जाएं, वो सुकून नहीं मिलेगा जो माँ के पल्लू में रहकर मिलता था।

ऐसी आधुनिकता का क्या औचित्य जो हम से हमारी मूल धरोहर, हमारे संस्कार, हमारी संस्कृति ही छीन ले। विचार ज़रूर कीजिएगा।

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10 टिप्पणियाँ

  1. माँ मेरी दुनिया तेरी आंचल में है

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