भगवान् बुद्ध का सम्पूर्ण जीवन
जन्म
भगवान् बुद्ध का जन्म कपिलवस्तु के लुंबिनी नामक स्थान पर हुआ था। इनकी माँ महामाया का इनके जन्म के सात दिन बाद निधन हो गया। जिसके बाद महाप्रजापती गौतमी ने इनका पालन पोषण किया। बालक को सिद्धार्थ नाम दिया गया। जिसका अर्थ है वह जिसका जन्म सिद्धी प्राप्ति के लिए हुआ हो।
भगवान् बुद्ध का बचपन
बचपन से ही बालक सिद्धार्थ दया और करुणा से भरे हुए थे। जिसका उनके जीवन की अनेकों घटनाओं से पता चलता है। घुड़दौड़ की प्रतियोगिता के दौरान घोड़े के मुँह से झाग निकलता देखते थे। घोड़े को थका जानकर वहीं रोक देते और जानबूझकर जीती बाजी हार जाते। खेल में सिद्धार्थ को खुद हारकर सामने वाले को जीतते देखना ज़्यादा पसंद था। वे किसी को हारकर दुःखी होते हुए नहीं देख सकते थे। एक बार सिद्धार्थ के चचेरे भाई देवदत्त ने तीर मारकर एक हंस को घायल कर दिया। उन्होंने घायल हंस की मरहम-पट्टी करके अपनी दयालुता और करुणा का प्रमाण दिया था।
भगवान् बुद्ध की शिक्षा
सिद्धार्थ ने गुरु विश्वामित्र से वेद और उपनिषद् की शिक्षा ग्रहण की। साथ ही राजकाज और युद्ध-विद्या की भी शिक्षा ली। उनके भीतर सीखने की ख़ूब ललक थी। इसी के चलते उन्होंने कुश्ती, घुड़दौड़, तीरंदाज़ी, रथ चलाना भी सीखा। जिसमें उनकी बराबरी कर पाना औरों के लिए बहुत मुश्किल था।
भगवान् बुद्ध का विवाह
सोलह वर्ष की आयु में सिद्धार्थ ने यशोधरा के साथ विवाह किया। सिद्धार्थ के पिता ने ऋतुओं के अनुसार समस्त भोगों से पूर्ण महल बनवाये। जिसमें वे यशोधरा के साथ रहने लगे। यहाँ उनके पुत्र राहुल का जन्म हुआ। किन्तु उन्हें महल का सुख भा नहीं रहा था। उन्हें ये अहसास था कि उनका जन्म महलों के सुख भोगने के लिए नहीं हुआ। बल्कि दूसरों को सुख पहुँचाने के लिए हुआ है।
भगवान् बुद्ध का वैराग्य जीवन
सिद्धार्थ का मन व्याकुल रहने लगा था। इसी व्याकुलतावश एक बार सिद्धार्थ अपने राज्य में सैर पर निकले। उन्होंने एक बूढ़े व्यक्ति को देखा जिसके दाँत टूटे, बाल पके और शरीर टेढ़ा था। हाथ में लाठी लिए काँपते हुए वह सड़क पर जा रहा था। इस दृश्य ने उनकी बेचैनी को बढ़ा दिया था।
दूसरी बार सिद्धार्थ फ़िर सैर पर निकले। उन्होंने एक रोगी को देखा। उसकी साँसें तेजी से चल रही थीं। उसके कंधे ढीले और चेहरा पीला पड़ चुका था। ये सब इससे पहले उन्होंने कभी नहीं देखा था। उनकी बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी।
तीसरी बार सिद्धार्थ सैर पर निकले तो उन्हें एक अर्थी जाते हुए दिखी। जिसे चार आदमी उठाए लिए जा रहे थे। जिनके पीछे बहुत से लोग थे। कोई रो-रो कर छाती पीट रहा था, तो कोई अपने बाल नोच रहा था। इन दृश्यों ने करुणा से भरे सिद्धार्थ को विचलित कर दिया था।
चौथी बार जब सिद्धार्थ सैर पर निकले, तो उन्होंने एक संन्यासी को देखा। संसार की सारी कामनाओं से मुक्त प्रसन्नचित्त संन्यासी ने सिद्धार्थ को आकृष्ट किया। उनकी व्याकुलता भी नियंत्रित होने लगी। इस घटना के बाद से उनका मन वैराग्य में चला गया। अपनी पत्नी और नवजात शिशु को त्याग कर दिया। उन्होंने संसार को जरा, रोग, और मरण जैसे दुखों से मुक्ति दिलाने का दृढ़ संकल्प लिया। सत्य की खोज में रात्रि में ही राजपाठ त्यागकर वन की ओर निकल पड़े।
भगवान् बुद्ध को ज्ञान प्राप्ति
उन्होंने संन्यास काल में आलार कलाम को अपना गुरु मानकर उनसे शिक्षा प्राप्त की। वर्षों की कठोर साधना की। बोध गया में बोधि वृक्ष के नीचे उन्होंने ज्ञान प्राप्त किया। उसके बाद से लोगों के जीवन का उद्धार करने के लिए उपदेश देने लगे। उनके विचारों की शुद्धता ने उन्हें सिद्धार्थ से भगवान बुद्ध बना दिया।
बौद्ध धर्म का प्रचार
उस वक्त की सरल लोकभाषा पाली में भगवान् बुद्ध ने अपने धर्म का प्रचार किया। जिससे उनकी लोकप्रियता और तेजी से बढ़ने लगी। अपने प्रथम पाँच मित्रों को अनुयायी बनाकर उन्होंने काशी में धर्मोपदेश दिया। उन्हें धर्म प्रचार करने के लिये राज्य के सभी कोनों में भेजा। भिक्षुओं की संख्या तेज़ी से बढ़ने लगी। जिसके बाद बौद्ध-संघ की स्थापना हुई। जिसमें सबसे पहले महाप्रजापति गौतमी को प्रवेश मिला। भगवान् बुद्ध अपने सबसे प्रिय शिष्य आनंद को संबोधित करते हुए अपना उपदेश देते थे। भगवान बुद्ध अहिंसा के विरुद्ध थे। उन्होंने बलि आदि के लिए जीवहत्या की घोर निंदा की। भगवान बुद्ध ने संसार में सभी का उद्धार करने का संकल्प लिया। उन्होंने अपने धर्म का देश-विदेश में प्रचार किया। अशोक आदि सम्राटों ने विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार में अहम् भूमिका निभाई। मौर्यकाल के शुरू होते होते बौद्ध धर्म भारत से बाहर निकला। चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, बर्मा, थाईलैंड, चीन, श्रीलंका आदि देशों में तेज़ी से फैला। इन देशों में बौद्ध धर्म को मानने वालों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है।
भगवान् बुद्ध का महापरिनिर्वाण
80 वर्ष की आयु में भगवान् बुद्ध परिनिर्वाण के लिए निकले। उन्होंने अपना आखिरी भोजन एक लोहार से भेंट के रूप में प्राप्त किया था। जिसे खाने के बाद वे गंभीर रूप से बीमार पड़ गये। इसी घटना के बाद भगवान् बुद्ध ने अपना शरीर त्याग निर्वाण प्राप्त किया।
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aise maha pursho ke charno me mera koti koti pranam
जवाब देंहटाएंNamo buddhay 🙏🙏
जवाब देंहटाएंBudh ki jiwani hme hmesha ek nai soch degi or kruna ki raho pe chlayegi
सही कहा है आपने।
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